बिजली वितरण के इतिहास का चक्र जैसे फिर से घूमने को तैयार है। उत्तर प्रदेश सरकार ने दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम और पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम को पीपीपी मॉडल पर लाने का प्रस्ताव दिया है। यह वही मॉडल है जिसमें सरकारी और निजी साझेदारी से काम किया जाता है। ऐसा ही मॉडल 100 साल पहले आगरा में लागू था। उस समय बिजली की पूरी व्यवस्था निजी कंपनियों के हाथ में थी।
आगरा में 1923 में हुई थी शुरुआत
साल 1923 में आगरा इलेक्ट्रिक सप्लाई कंपनी ने शहर को पहली बार बिजली कनेक्शन दिया। इस कंपनी ने दयालबाग के पोइयाघाट मंदिर के पास पहला खंभा लगाया, जिससे दयालबाग के इलाकों को रोशनी दी गई। सबसे पहला घरेलू कनेक्शन आगरा के सेठ अचल सिंह के नाम पर दर्ज हुआ। सेठ अचल सिंह पांच बार सांसद रह चुके थे। उस समय आगरा कॉलेज का हॉस्टल एमजी रोड पर पहला सार्वजनिक स्थान था, जहां बिजली की रोशनी ने चमक बिखेरी।
बिजली उत्पादन भी था निजी हाथों में
1923 में वितरण व्यवस्था शुरू करने के बाद, 1933 में मार्टिन बर्न कंपनी ने आगरा किला के पास 0.5 मेगावाट क्षमता का बिजलीघर स्थापित किया। धीरे-धीरे इसकी क्षमता 29.75 मेगावाट तक बढ़ाई गई। बिजली की बढ़ती मांग को देखते हुए यमुना पार ईस्ट बैंक पावर हाउस भी बनाया गया। हालांकि, ताजमहल को प्रदूषण से बचाने के लिए इन बिजलीघरों को बंद कर दिया गया। आज ये दोनों बिजलीघर केवल इतिहास बनकर रह गए हैं।
सरकारीकरण और फिर निजीकरण का दौर
18 दिसंबर 1973 को आगरा इलेक्ट्रिक सप्लाई कंपनी ने अपनी पूरी व्यवस्था उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद को सौंप दी। उस समय आगरा में 51,000 उपभोक्ता थे। लेकिन 2010 में आगरा की वितरण व्यवस्था फिर से निजी हाथों में चली गई। टोरंट पावर को शहर की बिजली आपूर्ति का जिम्मा सौंपा गया। इस समय केवल आगरा की बिजली व्यवस्था निजी कंपनी के पास है, जबकि अन्य शहरों में निगम ही वितरण का काम कर रहा है।
ओडिशा मॉडल से प्रेरित है योजना
प्रदेश सरकार घाटे में चल रहे विद्युत वितरण निगमों को सुधारने के लिए ओडिशा मॉडल को अपनाने की योजना बना रही है। ओडिशा में टाटा पावर के साथ मिलकर राज्य सरकार ने एक निजी कंपनी बनाई, जो वहां बिजली वितरण का काम संभाल रही है। इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम और पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम को पीपीपी मॉडल पर लाने की तैयारी है।
अभियंता संघ का विरोध
निजीकरण की इस योजना का उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद अभियंता संघ ने कड़ा विरोध किया है। संघ के महासचिव जितेंद्र सिंह गुर्जर ने कहा कि 6 अक्तूबर 2020 को तत्कालीन ऊर्जा मंत्री सुरेश खन्ना ने लिखित समझौता किया था कि इंजीनियरों को भरोसे में लिए बिना किसी भी शहर में निजीकरण नहीं किया जाएगा। लेकिन अब इस समझौते का उल्लंघन हो रहा है। अभियंता संघ ने कहा है कि अगर यह योजना वापस नहीं ली गई, तो निर्णायक आंदोलन किया जाएगा।
आज की स्थिति
दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम फिलहाल 21 जिलों में काम कर रहा है। इन जिलों में सिर्फ आगरा शहर में ही बिजली वितरण निजी कंपनी के हाथों में है। अन्य शहरों में वितरण का जिम्मा अभी भी निगम के पास है। सरकार का कहना है कि पीपीपी मॉडल से घाटे में चल रहे निगमों को मुनाफे में लाया जा सकेगा, लेकिन अभियंता संघ और कई उपभोक्ता इस फैसले से असहमत हैं।
इतिहास खुद को दोहराता है?
आज से करीब 100 साल पहले आगरा में बिजली वितरण पूरी तरह से निजी कंपनियों के हाथों में था। लेकिन 1973 में इसे सरकारी नियंत्रण में लाया गया। अब एक बार फिर सरकार निजी कंपनियों को इसमें शामिल करने की तैयारी कर रही है। सवाल यह है कि क्या निजीकरण उपभोक्ताओं और सरकार दोनों के लिए फायदेमंद साबित होगा, या फिर इससे नई चुनौतियां खड़ी होंगी?
इस फैसले का असर केवल बिजली व्यवस्था पर ही नहीं, बल्कि उपभोक्ताओं की जेब और सुविधा दोनों पर पड़ेगा। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह बदलाव किस दिशा में जाता है।
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